बैरासकुण्ड - रावण की तपस्थली
(Bairaskund - Ravana's Tapasthali)
देवभूमि उत्तराखण्ड के प्रत्येक स्थल का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व है। अनेक रहस्यों को समेटे यंहा के प्रत्येक स्थल के साथ आस्था व विश्वासका अटूट गठजोड़ है। इन्हीं में से एक पौराणिक स्थल बैरासकुण्ड है। ऐसी मान्यता है कि रावण ने यहीं पर पितामह ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिये अपने मुण्डों की आहुति दी थी।
चमोली जनपद में दशोली विकासखण्ड है। दशोली नाम होने के पीछे कारण रावण की तपोस्थली होना ही है। रावण की तपोभूमि होने के कारण यह क्षेत्र दशमौलिगढ़ कहलाया कालान्तर में अपभ्रंशित होकर दशोली नाम प्रसिद्ध हुआ।
दशमौलिगढ़ को ही रावण ने अपने राज्य की उत्तरी सीमा निर्धारित किया था। इस सीमा की सुरक्षा का दायित्व पहले ताड़का के पास और बाद में सूर्पणखा व खर-दूषण के पास आया था। इसी दशोली क्षेत्र के अन्तर्गत नन्दप्रयाग से लगभग 25 किमी की दूरी पर स्थित यह स्थल अनादि काल से श्रद्धा एवं विश्वास का केन्द्र रहा है। वैसे तो बैरासकुण्ड शब्द का उल्लेख पुराणों में कहीं भी प्राप्त नहीं होता है, परन्तु इसके अस्तित्व की सन्दर्भ कथाएं अवश्य प्राप्त होती हैं।
संस्कृत कोषों में वैरास शब्द प्राप्त नहीं होता है। अपितु वैराट शब्द प्राप्त होता है।जिसका अर्थ विराट(भगवान के विराट रुप) से सम्बन्धित होता है। इसीका अपभ्रंश हो के हो सकता है वैरास या बैरास बना हो। इसके आगे “कुण्ड’ शब्द जुड़ने से “बैरासकुण्ड” शब्द बना है। जिसका मतलब भगवान के विराट रुप का साक्षात्कार कराने वाला कुण्ड हो सकता है।
अन्य मान्यताओं के अनुसार सन्धि विच्छेद करने पर इसका विलक्षण अर्थ निकलता है। वैर + आश्र + कुण्ड इन तीन शब्दों के मेल से “वैरासकुण्ड’ शब्द बनता है। वैर शब्द वैरभाव या शत्रुभाव का बोधक है, आश्र का अर्थ अश्रु और कुण्ड का अर्थ तालाब, जलाशय या हवन के लिये खोदा गया गढ्ढा होता है।
“कुण्ड’ शब्द का प्रयोग देवादिखात -जलाशये एवं कुण्ड्यते रक्ष्यते जलं वह्निर्वा (वाचस्पत्यम्) अर्थात् जल एवं अग्नि की रक्षा करने के निमित्त बनाया गया खात अर्थात् गढ्ढा या विशेष आकृति कुण्ड कहलाती है। इस प्रकार वैरासकुण्ड का शाब्दिक अर्थ हुआ- “जहां वैरियों के अश्रुपात से जलाशय बन गया था अथवा जहां वैरियों या शत्रुओं की आहुति देने के लिये हवन की अग्नि स्थापना के लिये कुण्ड बनाया गया था।
पौराणिक वैदिक परम्परा में काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर एवं मोह ये जीवमात्र के शत्रु कहे गये हैं। ऋषि - मुनि इन्हीं शत्रुओं पर विजय पाकर परमतत्व की प्राप्ति विषयक उपायों के विषय में चिन्तन, मनन और विचार करते रहते थे। यही चिन्तन पुराणों, दर्शन, साहित्य, अरण्यकों एवं अन्यान्य ग्रन्थों के रुप में हमें प्राप्त होता है। कहते हैं एक बार अरुन्धती सहित महर्षि वसिष्ठ इस क्षेत्र में तपस्या के लिये आये। उन्होंने हवन की अग्नि स्थापना हेतु यहाँ यज्ञ कुण्ड की स्थापना की और उसमें तपस्या के उपरोक्त वर्णित शत्रुओं की आहुति प्रदान की। अपने को शीघ्र नष्ट होता जानकर उन आसुरी वृत्तियों ने भारी अश्रुपात किया जिससे वह यज्ञ कुण्ड जलाशय में बदल गया। तब से यह अग्निकुण्ड “वैरासकुण्ड” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इसी दिव्यस्थल पर महर्षि वसिष्ठ ने एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की थी। प्रसन्न होकर भगवान शत्रुहन्ता शूलपाणि भगवान शंकर ने इन्हें वशिष्ठेश्वर लिंग के रूप में दर्शन दिए। तब से ही भगवान शंकर की आराधना यंहा वशिष्ठेश्वर के नाम से की जाती है। स्कन्दपुराण के केदारखण्ड अध्याय 58 श्लोक 5-6 में वैरासकुण्ड तीर्थ स्थल की स्थिति तथा माहात्म्य में वसिष्ठेश्वर लिंग का वर्णन मिलता है। महर्षि वसिष्ठ अरुन्धती से स्वयं कहते हैं कि नन्दप्रयाग में भगवान विष्णु लक्ष्मी नारायण रूप में स्थित हैं और इन्हीं की सन्निधि में एक योजन की दूरी पर वसिष्ठेश्वर लिंग की स्थिति है-
तत्र सन्निहितो विष्णुर्मया सह शिवेन च।
ततो योजनके देवि शिवलिंगं सुदुर्लभम्॥
वसिष्ठेशो महादेवो मया संराधितः पुरा।
तत्र प्राणव्यपायेन शिवो भवति निश्चितम्॥
दशशीष रावण ने भी इसी पुण्यप्रद स्थल पर दस हजार दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया था। आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड के सर्ग 10 श्लोक 9-17 में वर्णन आता है कि नन्दन वन में निवास करते हुए रावण और कुम्भकर्ण ने घोर तपस्या के द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि को त्रासित कर दिया था। प्रत्येक हजार वर्ष पूर्ण होने पर रावण अपना एक सिर काटकर अग्निकुण्ड में आहुत कर देता था। अपने 9 सिरों की आहुति देने के पश्चात् जैसे ही दस हजार वर्ष पूर्ण होने पर वह अपना दसवां सिर काटने को उद्यत हुआ, उसी समय ब्रह्मा जी प्रकट हो गये और रावण से वर मांगने को कहा। रावण ने “अमर” होने का वर मांगा।
परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा कि सृष्टि के नियमानुसार तुम अमर नहीं हो सकते, तुम कोई ओर वर मांगो। रावण ने गरूड़, नाग, यक्ष, दैत्य-दानव, राक्षस व देवताओं से अवध्य होने का वर मांगा। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर सभी सिर पुनः उगने तथा मनचाहा रूप धारण करने का भी वर दे दिया (वा०रा० उत्तर काण्ड सर्ग 10 श्लोक 24-25)।
दशग्रीव रावण द्वारा वैरासकुण्ड क्षेत्र में तपस्या करने की पुष्टि में अनेक भौतिक साक्ष्यों के प्रमाण भी दृष्टिगोचर होते हैं। वैरासकुण्ड मुख्य मन्दिर से लगभग 100 मीटर की दूरी पर रावण की तपस्थली बतलाई जाती है। यहाँ एक चौरस पत्थर है, जिसमें आराम से बैठा जा सकता है। इस पत्थर पर छिद्र भी देखने को मिलते हैं।लगभग 10 छिद्र वर्तमान में मौजूद हैं, अनुमान है कि इस पत्थर को चौड़ा एवं चौरस करने का प्रयास किया गया था। वर्तमान में इसके निकट हनुमान जी का मन्दिर बनाया गया है। अन्य भौतिक साक्ष्यों में क्वेलाख नामक स्थान महत्वपूर्ण है।
कहा जाता है कि रावण प्रतिदिन के नित्यकर्म के लिये नया कुआँ खोदकर पानी लाता था। इस कारण यहाँ पर कई लाख कुएँ हो गये। जिस कारण इस स्थल को “क्वैलाख’ कहा जाने लगा. कालान्तर में मन्दिर और क्वैलाख के बीच बरसाती पानी के बढ़ जाने से खाई एवं नालियाँ बन गयी जिस कारण मन्दिर और क्वैलाख की दूरी बढ़ गयी । मन्दिर के चारों ओर भी चार कुएँ हैं। जिनमें नागकुण्डी, भोगजल कुण्डी, अभिषेक जल कुण्डी तथा वैरासकुण्ड मुख्य हैं।
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