बदरीपुरी में स्थित पांच शिला- नारद, गरुड़, वाराही, नृसिंह और मार्कण्डेय शिला

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 श्रीबदरीनाथ तीर्थ दर्शन यात्रा के भाग 5 में बदरीपुरी में स्थित पांच शिलाओं (नारद, गरुड़, वाराही, नृसिंह और मार्कण्डेय शिला), गंगा की आदिधारा भगवती अलकनन्दा व बदरीक्षेत्र के क्षेत्रपाल, द्वारपाल अथवा कोतवाल महावीर घण्टाकर्ण का वर्णन है।

॥"पंचशिला"॥

नारदी नारसिंही च वाराही गारुड़ी तथा।
मार्केण्डेयीती विख्याताः शिला सर्वार्थ सिद्धिदाः॥"
(स्कन्दपुराण अध्याय 3, श्लोक 20)
नारद,नृसिंह,वाराही, गरुड़ और मार्कण्डेय ये पांच सिद्धि प्रदान करने वाली शिलाएं हैं। ऐसी मान्यता है कि इन पांच  शिलाओं के मध्य ही भगवान नारायण का स्थान है। इनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।

॥"गरुड़ शिला"॥

बदर्य्या: दक्षिणे भागे गन्धमादनश्रृङ्गके।
गरुड़स्तप आतेपे हरिवाहन काम्यया॥
(स्कन्दपुराण)

बदरिकाश्रम से दक्षिण भाग अथवा दिशा में गन्धमादन पर्वत के शिखर पर गरुड़ ने भगवान विष्णु का वाहन बनने की इच्छा से तप किया था।
कश्यप की पत्नी कद्रू और विनता बहिने थी। कद्रू और विनता में एकबार सूर्य भगवान के रथ के घोड़ों का रंग सफेद या काले के सम्बन्ध में विवाद हो गया। कद्रू जोकि बड़ी थी उसने कहा कि घोड़े काले हैं। छोटी विनता ने कहा सफेद हैं। विनता ने ने शर्त रखी की सफेद हुए तो तुम मेरी दासी बनोगी,काले हुए तो मैं तुमारी दासी बनूँगी। कश्यप ऋषि के कहने पर विनता ने  सर्वगुणसम्पन्न दो पुत्र मांगे तथा कद्रू ने बहुत से पुत्र। कद्रू के क्रूर स्वभाव के बहुत सारे नाग पुत्र हुए। विनता को कश्यप ने दो अण्डे दिए थे यह कहकर कि समय आने पर इनसे तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होंगे। विनता ने कौतूहलवश एक अण्डे को फोड़ दिया जिससे कमर से ऊपर आधे शरीर का तेजस्वी पुत्र हुआ। अपनी मां को दूसरे अण्डे से उद्धारकर्ता पुत्र होगा इसलिए उसकी रक्षा करो कहकर उसने सूर्यदेव की आराधना प्रारम्भ कर दी। सूर्य ने उसको अपना सारथी नियुक्त किया। जिसका नाम अरुण हुआ। सूर्योदय से पूर्व के समय को अरुणोदय काल इसी कारण कहते हैं क्योंकि भगवान के सारथी अरुण पहले प्रकट होते हैं।

अपने नाग पुत्रों से कद्रू ने जब सूर्य के घोड़ों का रंग पूछा तो उनके सफेद कहने पर कद्रू ने उनसे कहा कि उनसे लिपट कर उनका रंग काला कर दो। मां के कहने पर नागों ने घोड़ों से लिपट उनको काला कर दिया। जो नाग नहीं माने उनको जल जाने का श्राप दे दिया। जनमेजय के सर्पयज्ञ में यही नाग कद्रू के श्राप के कारण जलकर मर गए थे।
विनता को छलपूर्वक हराकर कद्रू ने उसको अपनी दासी बना लिया। कुछ काल पश्चात् दूसरे अण्डे से महाबली गरुड़ का जन्म हुआ। दासीपुत्र कहकर नाग उनका बड़ा अपमान करते थे। स्वर्ग से अमृत लाने की शर्त पर नागों ने उनका और उनकी मां विनता का दासत्व समाप्त करने का वचन दिया। गरुड़ जी ने उनको केवल अमृत कलश का दर्शन कराए और उन्हीं की तरह छलकर अपनी मां को दासत्व से मुक्ति दिलाई।
बदरिकाश्रम के पास गरुड़ जी विष्णुवाहन बनने की इच्छा से एक पैर पर खड़े रहकर बत्तीस हजार वर्षों तक तपस्या की। भगवान के दर्शन देने पर गरुड़ ने भगवान के चरण धोने के लिए जल खोजा तो पञ्चमुखी गङ्गा प्रकट हुई। इसका नाम गरुड़गंगा प्रसिद्ध हुआ। गरुड़ को भगवान विष्णु ने अपना वाहन होने, देवता-मनुष्य-गन्धर्वों से अविजित रहने तथा गरुड़गंगा के स्मरण से विष का भय न होने के तीन वरदान दिए। भगवान के कहने पर गरुड़ बदरिकाश्रम आए। यंहा एक शिला पर बैठकर उन्होंने तीन दिन उपवास किया। इस शिला को ही गरुड़शिला कहा जाता है। इसीके नीचे से ही गर्म जल के स्रोत से गरम जल बाहर निकलता है। यंहा एक छोटी गुफा भी है। जिसे गरुड़ कुटी के नाम से जाना जाता है।

॥"नारद शिला"॥


नारदो भगवांस्तेपे तपः परम दारुणम्।
दर्शनार्थं महाविष्णोः शिलायां वायुभोजनम्॥
नारद ने भगवान के दर्शनों की अभिलाषा से एक शिला के ऊपर बैठ केवल वायु का सेवन कर दारुण अर्थात् घोर तप किया।
बदरीनाथ मंदिर के नीचे एक शिला है जिसका विस्तार अलकनन्दा तक है। इसी शिला पर बैठकर नारद जी नारायण के दर्शन की इच्छा से साठ हजार वर्ष तक मात्र वायु का सेवन कर घोर तप किया था। भगवान के दर्शन देने पर नारद ने तीन वरदान मांगे ‍पहला भगवान के चरणों में सदा सर्वदा अचला भक्ति का, दूसरा नारद शिला के पास भगवान का सदैव वास रहने का, तीसरा नारद तीर्थ में स्नान, आचमन अथवा दर्शन से पुनः मनुष्य जन्म प्राप्त न होने का। इस शिला के नीचे अलकनन्दा में एक कुण्ड है जिसे नारद कुण्ड कहते हैं। बदरीनाथ जी के विग्रह को यहीं से निकालकर शंकराचार्यजी ने पुनर्स्थापित किया था।

॥"नृसिंह शिला"॥

नारद शिला के पास में ही भगवती अलकनन्दा के मध्य में एक शिला है। नृसिंह शिला के नाम से प्रसिद्ध ये शिला साक्षात् नृसिंह का रुप ही है। हिरण्यकशिपु का वध करने के पश्चात् भगवान नृसिंह का क्रोध शान्त कराने के कई प्रयत्न लक्ष्मी जी व अन्यान्य देवता और ऋषियों ने किए। परन्तु भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ। प्रह्लाद की स्तुति व देवताओं की प्रार्थना पर भगवान बदरिकाश्रम जाकर अलकनन्दा के शीतल जल में क्रीड़ा करने लगे। गंगा के शीतल जल व क्षेत्र के प्रभाव से भगवान नरहरि का क्रोध शान्त हो गया। देवताओं व मुनियों की प्रार्थना पर भगवान ने शिला का रुप धारण कर सबकी रक्षा करने का वरदान दिया।
"नृसिंहोऽपि शिलारुपी जलक्रीडा परोऽभवत्॥"

॥"वाराही शिला"॥

रसातलात् समुधृत्य महीं दैवतवैरिणम्।
हिरण्याक्षं रणे हत्वा बदरीं समुपागतः॥
(स्कन्दपुराण)
वाराहरुप धारणकर भगवान रसातल से पृथ्वी को लाए तथा समस्त देवताओं के शत्रु पृथ्वी को अपहरित करने वाले हिरण्याक्ष का  उद्धार कर भगवान बदरिकाश्रम में चले आए। यंहा भगवान शिलारुप में निवास करने लग गए। अलकनन्दा नदी में स्थित इस शिला की आकृति ध्यान से देखने पर (वाराह) सूकर के जैसी प्रतीत होती है।
इस शिला के समीप दान का महत्व है।

॥"मार्कण्डेय शिला॥

मार्कण्डेय को भगवान नारायण ने अल्पायु से सात कल्प की आयु प्रदान कर दी थी। नारद जी के कहने पर मार्कण्डेय मुनि भी बदरिकाश्रम आ गए। यहां नारद शिला के पास एक शिला पर बैठकर  भगवान के दर्शनों के निमित्त उपवास किया। भगवान ने दर्शन देकर मार्कण्डेय जी को अचला भक्ति का वरदान दिया। इस शिला का नाम मार्कण्डेय शिला प्रसिद्ध हुआ।
 नारद पुराण में मार्कण्डेय शिला के स्थान पर नर-नारयणी शिला का नाम वर्णित है।
  पहले ऋषि मुनि बदरिकाश्रम में उपवास इसलिए करते थे कि भगवान मूर्तिरुप में नहीं थे। इस कारण भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन करने हेतु व्रत,उपवास आदि किए जाते थे।
"भगवती अलकनन्दा"

श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णन आता है कि उद्धव को भागवत धर्म का उपदेश करने के पश्चात् द्वारिकापुरी को सात दिन में नष्ट होने वाली जान  बदरीनाथ जाने की आज्ञा देते हुए श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव से कहा
"ईक्षयालकनन्दाया विधूता शेषकल्मषः।
वसानोवल्कालन्यङ्ग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः॥"
(श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कन्ध 11, अध्याय 29, श्लोक 42)
अलकनन्दा के दर्शनमात्र से तुम्हारे सारे पाप ताप नष्ट हो जायेंगे। प्रिय उद्धव! तुम वंहा वृक्षों की छाल पहनना, वन के कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोग की अपेक्षा न रखकर निःस्पृह वृत्ति से अपने आप में मस्त रहना।
भगवती लक्ष्मी ने अपनी एक राक्षस ने तपस्याकर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु केवल ऐसे मनुष्य द्वारा हो जिसका सिर घोड़े का हो। वरदान प्राप्त कर उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर ऋषि- मुनि व देवता भगवान विष्णु के पास गए। उस राक्षस के अत्याचारों से मुक्ति देने का उपाय करने की प्रार्थना भगवान से की। लम्बे समय तक युद्ध करने के बाद भी भगवान उसको हरा नहीं सके। भगवान ने देवताओं से कहा कि जबतक मेरा सिर घोड़े का न हो जाए तबतक यह राक्षस मर नहीं सकता। एक दिन भगवान ने लक्ष्मी जी का यह घमण्ड कि वही भगवान को ज्यादा प्रिय हैं तोड़ने के लिए गंगा व तुलसी के साथ बैठकर लक्ष्मी को देख हंसने लग गए। गंगा और तुलसी भी हंस रही थी। बार बार कारण पूछने पर भी भगवान कुछ नहीं बोले। अपनी अवहेलना समझ कर  लक्ष्मी ने तुलसी, गंगा और भगवान विष्णु को श्राप दे दिए। भगवान को घोड़े की तरह हंसने के लिए घोड़े का मुख हो जाए ऐसा श्राप दिया। तुलसी को पृथ्वी में वृक्ष बनने का व गंगा को इस धरा पर नदी होकर बहने का श्राप दे दिया।
भगवान ने गंगा को अपने से विलग (अलग) न होने का विश्वास देते हुए बदरिकाश्रम में अपने दर्शन होते रहने का विश्वास दिलाया। देवताओं ने भगवान के धनुष की प्रत्यंचा को दीमक से कटवा दिया जिस कारण भगवान का सिर कट गया। देवताओं ने उस धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया। भगवान का ये हयग्रीवावतार हुआ। भगवान ने उस दुष्ट राक्षस का वध कर दिया और सब दिशाओं में गंगा जी नारायण पर्वत के अन्त से प्रारम्भ होकर भगवान बदरी के चरणों से होकर बहने लगी। इनका नाम "विष्णुपदगामिनी'' हुआ। ये गंगाजी की मूल धारा हैं। भगवती भागिरथी बाद की धारा हैं। सगर के वंशजों को तारने के लिए गंगाजी भागिरथी धारा बनकर अवतीर्ण हुई। देवप्रयाग में दोनों मिलकर गंगा के नाम से जानी जाती हैं।

॥"महावीर घण्टाकर्ण"॥

भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं। हस्तिनापुर में भगवान दुर्योधन का राजसी भोजन छोड़ विदुर के घर पत्तों का साग खाने चले गए थे।
हम जिस भाव से भगवान की आराधना अथवा अन्य कार्य करते हैं। उसी भाव अथवा कर्म के अनुकूल हमें फल की भी प्राप्ति होती है। हम जिस प्रकार का कर्म करेंगे अथवा अन्न ग्रहण करेगें। हमारा इष्ट भी उसी प्रकार की सिद्धि व बुद्धि हमको प्रदान करेगा।भगवान बदरीविशाल की परिक्रमा करते हुए मंदिर परिसर में बिना धड़ की मूर्ति वाले घण्टाकर्ण जी हैं। इनका विशाल मंदिर माणा गांव में स्थित है। बदरीश क्षेत्र के कोतवाल(थानेदार) अथवा भगवान बदरीश के ये द्वारपाल हैं। 
हम कितने ही कर्म करें परन्तु भाव नहीं होगा तो कर्म निष्फल हैं। भावग्राही भगवान नारायण ने भी हिंसक प्रवृत्ति और पिशाच योनि में जन्म लेने वाले क्रूरकर्मा घण्टाकर्ण का शुद्ध व समर्पित भाव देखकर उसको परमगति व अपना त्रिलोक दुर्लभ सान्निध्य दे दिया।
परम शिवभक्त घण्टाकर्ण पिशाच था। कहीं कर्णद्वारों में शिव के अतिरिक्त विष्णु इत्यादि का नाम न पड़ जाए इसलिए कानों में बड़ी बड़ी घण्टी बांध के रखता था। इसी कारण उसका नाम घण्टाकर्ण प्रसिद्ध हुआ।
घोर आराधना व तपस्या से त्रिनेत्रधारी आशुतोष ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और वर मंगने को कहा। घण्टाकर्ण ने मुक्ति का वरदान मांगा। उसके मन में भेदबुद्धि देखकर शिव जी ने कहा और कुछ मांग लो मुक्ति के दाता तो एकमात्र भगवान नारायण हैं। ऐसा सुनते ही नारायण का घोर विरोधी घण्टाकर्ण विलाप करने लग गया भगवान मेरे से अपराध हो गया है। जीवनभर मैंने नारायण का विरोध किया। भगवान नारायण अब क्यों मुझे दर्शन देंगे? आप मुझे प्रयश्चित बताओ। जिससे मेरे ऊपर भगवान नारायण की कृपा हो जाए।
भगवान शिव ने नारायण की भक्तवत्सलता व शरणागतवत्सलता के बारे में बताया। नारायण अवश्य तुमारे ऊपर कृपा करेंगे यह कहकर उसको द्वारिका पुरी भेज दिया। भगवान श्रीकृष्ण पुत्रप्राप्ति हेतु तप करने कैलाश गए हैं यह जानकर वह कैलाश की ओर चल पड़ा। रास्ते में बदरिकाश्रम पंहुचते ही उसने देखा कि ऋषि मुनि और देवता भगवान नारायण की सेवा व आराधना में तल्लीन थे। हरिवंशपुराण के अनुसार भगवान शिव ने उसको नर - नारायण के आश्रम बदरीपुरी में भेजा था।
वंहा भगवान श्रीकृष्ण तपस्या हेतु कैलाश जाते समय ऋषि मुनियों को दर्शन देने हेतु पधारे थे। ऋषियों से मिलने के पश्चात् भगवान उस स्थान पर जंहा उन्होंने तप किया था गए और ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो गए।
"समाधौ योजयामास मनः पद्मनिभेक्षणः।
किमप्येषः जगन्नाथो ध्यात्वा देवेश्वर स्थितः॥"
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 78, श्लोक 4)
कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने बैठने के पश्चात् अपने मन को समाधि में लगाया। वे देवेश्वर, जगतपरिपालक, जगन्नाथ किसी अनिर्वचनीय अर्थात् जिसका वाणी या मन के द्वारा वर्णन न किया जा सके। ऐसे तत्व का चिन्तन करते हुए, दृढ़तापूर्वक समाधि में स्थित हो गए।
पिशाच चारों तरफ मारकाट कर मारो, काटो, पकड़ो, भागो चिल्ला रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण मृगों को डरकर भागते व अपने चारों तरफ झुण्ड बनाकर कातर भावों से खड़े  देखने लगे। विचार करने लगे कि इस पुण्य पवित्र क्षेत्र में ये कौन आ गये हैं? दशों दिशाओं में भागते पिशाच व उनके  इस भयकंर पैशाचिक कोलाहल के मध्य दो पिशाच निरन्तर भगवान के दिव्य नामों का जोर से उच्चारण कर रहा थे। व भगवान का पता पूछ रहे थे।
"वदन्तौ कृष्ण कृष्णेति माधवेति च संततम्।
कदा नु द्रक्षते विष्णुः स इदानीं क्व तिष्ठति॥
स्वामिनः कुत्र वसतिः कुतो द्रष्टुं यतामहे।
अत्र वा कुत्र देवेश: कुतो नु स्थास्यते हरिः॥"
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 79, श्लोक 7-8)
वो दोनों भाई कृष्ण- माधव- हरि आदि भगवान के नामों का निरन्तर उच्चारण (गायन) करते हुए पूछ रहे थे कब भगवान विष्णु के दर्शन होंगे? वो इस समय कंहा होंगे? हमारे स्वामी जगदाधार श्रीहरि कंहा निवास कर रहे होंगे? हम उनको कंहा देख सकेंगे? भगवान माधव यंहा हैं या कहीं और निवास कर रहे होंगे?
 भगवान कृष्ण ने चारों तरफ देखा कि ये कौन आ रहा है? कौन हिंसा कर रहा है? कौन 
"कस्यैष विस्तृतो नादः कस्य वायं जनोऽपतत्।
को नु मां स्तौति भक्त्या वै भविष्ये प्रीतिमानहम्॥"
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 78, श्लोक 25)
भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया यह कोलाहल किसका है? कौन इस कोलाहल के मध्य मेरी स्तुति कर रहा है? कौन है वो जिसके ऊपर मैं प्रसन्न होऊंगा? और किसे परमदुर्लभ मुक्ति प्राप्त होगी?
 घण्टाकर्ण और उसका भाई पिशाच सेना के साथ श्रीकृष्ण के समक्ष आए और भगवान के दिव्य सर्वपाप प्रणाशक नामों का उच्चारण करते हुए भगवान के पास बैठ गए।
श्रीकृष्ण व घण्टाकर्ण ने एक दूसरे से परिचय किया। भगवान श्रीकृष्ण से परिचय पूछने के क्रम में पिशाच ने पूछा 
"अस्मत् प्रीतिकरः साक्षात् प्राप्तो विष्णुरिवापर।
देवो वा यदि वा यक्षो गन्धर्व किन्नरोऽपि वा॥
इन्द्रो वा धनदो वापि यमोऽथ वरुणोऽपि वा।
एकाकी विपिने घोरे ध्यानार्पित मना इव॥"
हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 80, श्लोक 7-8)
आप हमारी प्रीति बढ़ाने वाले कौन हो? जो साक्षात् दूसरे विष्णु के जैसे लग रहे हो?आप देवता, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, इन्द्र, कुबेर, यम अथवा वरुण में से कौन हो? इस गहन अरण्य (घने जंगल) में आप किसका मनपूर्वक ध्यान कर रहे हो?
भगवान ने उन पिशाच भाईयों को अपना परिचय दिया किन्तु क्षत्रिय के रुप में दिया।
"क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्याः प्रकृतिस्तथा
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः॥
लोकानथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।
कैलाशं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्॥"
ळ(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 80, श्लोक 10-11)
भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पिशाच भाइयों को उत्तर देते हुए कहा मैं क्षत्रिय हूँ। यदुवंश में जन्म लेकर मैं क्षत्रिय वृत्ति का अनुपालन करते हुए लोक का पालक व दुष्टों का शासक (संहारक) कहलाता हूं। भगवान उमापति के दर्शन करने के निमित्त कैलाश जाने की इच्छा से आया हूँ।
भगवान ने कहा हे पिशाच ! तुम अपने दल बल के साथ कंहा घूम रहे हो? इस परम पवित्र तपोभूमि मे हिंसक वृत्ति का आश्रय लेने वाले तुम कौन हो और तुम्हारे साथ ये कौन है? भगवान श्रीकृष्ण के पूछने पर पिशाच ने उत्तर दिया 
"घण्टाकर्णोऽस्मि नाम्नाहं पिशाचो घोरदर्शनः।
मांसादो विकृतो घोरः साक्षान्मृत्युरिवापरः॥
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 80, श्लोक 23)
मैं घण्टाकर्ण नामक भयकंर पिशाच हूं। मांसादि का सेवन व घोर कर्म करने वाला मैं साक्षात् दूसरे काल अथवा मृत्यु के समान हूं। मेरे साथ ये मेरा छोटा भाई है। हम दोनों कुत्तों के दलयुक्त  अपने पिशाच समूह के साथ आशुतोष शिव के कहने पर भगवान विष्णु के दर्शन करने   यंहा आया हूं। 
घण्टाकर्ण ने भगवान श्रीकृष्ण को अपने बारे में बताते हुए कहा 
"सततं दूषयन् विष्णुं घण्टामावध्य कर्णयोः।
मम न प्रविशोन्नाम विष्णोरिति विचिन्त्यन्॥"
तस्मात् गत्वा च बदरीं तत्राराध्य जनार्दनम्।
मुक्तिं प्राप्नुहि गोविन्दान्नरनारयणाश्रमे॥
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 80, श्लोक 27,31)
मैं विष्णु से निरन्तर बैर करता हुआ उनका नाम भी मेरे कानों में न पड़े इसलिए कानों में घण्टी बांध के रखता था। भगवान शिव की आराधना से मुझे कैलाश में उनके दर्शन प्राप्त हुए। पिशाच योनि से मुक्ति मांगने पर उन्होंने मुझसे कहा कि मुक्ति के दाता श्रीहरि हैं। तुम नर-नारायण के आश्रम बदरीपुरी में जाकर उनकी शरण ग्रहण करो। वही तुमको मुक्ति प्रदान करेंगे। उन्ही नारायण को मैं खोज रहा हूं। ऐसा कहकर घण्टाकर्ण ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा कि अब मैं भगवान नारायण का ध्यान करता हूं। तुम पिशाचों से घिरे इस क्षेत्र में सुरक्षित नहीं हो। अतएव अन्यत्र चले जाओ।
रात को वह भगवान नारायण के नामों का स्मरण करता हुआ समाधिस्थ हुआ।
"एकचित्तस्तदा भूत्वा नमस्कृत्य च केशवम्।
इमं मन्त्रं पठन् घोरः पिशाचो भक्तवत्सलम्॥
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 80, श्लोक 58)
अत्यन्त भक्तिभावपूर्ण होकर उसने (घण्टाकर्ण) भगवान केशव को प्रणाम किया और दतचित्त होकर भक्तवत्सल भगवान के केशवादि नामों का पाठ करने लग गया।
भावप्रिय भगवान श्रीकृष्ण ने उसके शुद्ध भाव से प्रसन्न होकर उसके अन्तःकरण में चतुर्भुज रुप से दर्शन दिया। आंख खोलते ही  अपने सामने भगवान श्रीकृष्ण का वही रुप देखकर वह यही विष्णु हैं! यही विष्णु हैं! ऐसा चिल्लाने लगा। आनन्द के अतिरेक (अधिकता) में नाचने व हँसने लग गया।
घण्टाकर्ण ने भगवान की स्तुति की उनसे अपने बैरभाव हेतु क्षमायाचना की। तब उसको ध्यान आया कि भगवान को भेंट देनी चाहिए। हरिवंशपुराण में वर्णन आता है कि उसने वेदज्ञ ब्राह्मण को श्रेष्ठ मानते हुए उसका मांस भगवान को अर्पित किया।
भगवान से प्रार्थना करते हुए उसने कहा 
"भक्तिनम्रा वयं विष्णो नात्र कार्य विचारणा।
दत्तं यद् भक्तिनम्रेण ग्राह्यं तत् सर्वात्मने हरे॥"
(हरिवंशपुराण भविष्यपर्व अध्याय 83, श्लोक 4) 
हे विष्णो हम भक्तिभाव से विनम्र हैं इसमें कोई दूसरा कारण है। ऐसा आप विचार न करें। सेवक नम्रतापूर्वक भावपूर्वक व श्रद्धापूर्वक जो भी अर्पित करता है, हे सर्वात्मन् श्रीहरि स्वामी को उसको अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
भगवान ने उसको हिंसकवृत्ति के द्वारा होनेवाले पापों के सम्बन्ध में बताकर ब्राह्मण को अबध्य बताते हुए कहा कि धर्म की इच्छा रखने वालों के लिये ब्राह्मण सर्वदा पूज्य है। पिशाच ही उसकी हिंसा का प्रयत्न कर सकते हैं। 
केशव ने अपने हाथों से दिव्य स्पर्श उस पिशाच के शरीर पर किया। परात्पर प्रभु श्रीकृष्ण के स्पर्श के प्रभाव से वह पिशाच योनि से मुक्त होकर हिंसारहित, निष्पाप और देवतुल्य दिव्य देह को प्राप्त हुआ। भगवान ने अपनी सायुज्य भक्ति प्रदान कर उसको बदरीश क्षेत्र का द्वारपाल अथवा कोतवाल नियुक्त किया।
इस प्रकार पिशाच की भावयुक्त भक्ति ने उसको दिव्यत्व की प्राप्ति करा सदा सर्वदा और अहर्निश भगवान के पास रहने का सौभाग्य प्रदान किया।
महावीर घण्टाकर्ण की पूजा पद्धति का वर्णन मणिभद्रपुरी (माणा) गांव के प्रकरण में विस्तार से होगा। 
अगले भाग में तप्तकुण्ड, ब्रह्मकपाल, इन्द्रधारा, भृगुधारा मातामूर्ति व केशव प्रयाग का वर्णन होगा।
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