श्रीबदरीनाथ तीर्थ दर्शन भाग 8

श्रीबदरीनाथ तीर्थ दर्शन, कलापग्राम, मुचकुन्द गुफा, देवताल, यमपाला, वसुधारा व अलकापुरी.
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  ॥Sri Badarinath Tirtha Darshan Part 8॥

॥श्रीबदरीनाथ तीर्थ दर्शन भाग 8॥
तीर्थदर्शन के पिछले भागों में बदरीनाथ से (मणिभद्रपुरी) माणा तक के प्रमुख तीर्थों का वर्णन था। यात्रा के प्रस्तुत भाग में सरस्वती घाटी व अलकनन्दा घाटी के तीर्थों का पौराणिक अथवा स्थानीय मान्यताओं सहित वर्णित करने का प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत भाग में कलापग्राम, मुचकुन्द गुफा, देवताल, यमपाला, वसुधारा व अलकापुरी का वर्णन है।

॥'' मुचकुन्द गुफा "॥

मणिभद्रपुरी से सरस्वती घाटी की ओर अनुमानतया 1.5 किमी ऊपर मुचकुन्द गुफा है। इस सघन अन्धकारमय गुफा में एक शिला के ऊपर शङ्ख आदि चिह्नों से युक्त चरणों के निशान है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार ये भगवान श्रीकृष्ण के चरणों के निशान माने जाते हैं। प्रचलित लोकमान्यता है कि इस गुफा में भगवान श्रीकृष्ण ने कालयवन को राजर्षि मुचकुन्द के द्वारा भस्म कराया था।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार कालयवन को मुचकुन्द के द्वारा भस्म कराने के पश्चात् भगवान ने मुचकुन्द को तपस्या करने को कहा।  बदरिकाश्रम क्षेत्र में आकर मुचकुन्द ने तपस्या के द्वारा भगवान नारायण की आराधना की।
"बदर्याश्रमसमासाद्य नरनारायणालयम्।
सर्वद्वन्द्वसहः शान्तस्तपसाऽऽराधयद्धरिम्॥"
(श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कन्ध 10, अध्याय 52, श्लोक)
भगवान नर नारायण के नित्य निवास स्थान बदरिकाश्रम में जाकर शान्त भाव से गर्मी शीत आदि द्वन्द्व सहते हुए मुचकुन्द तपस्या द्वारा भगवान की आराधना करने लगे।
मुचकुन्द प्रतापी राजा थे। देवताओं की ओर से दैत्यों के विरुद्ध युद्ध करने के बाद जब उनको पता चला कि पृथ्वी में कई युग बीत चुके हैं तो उन्होंने इन्द्र से भगवान नारायण के दर्शन होने तक थके होने के कारण गहन निद्रा व उठाने वाले पर दृष्टि पड़ते भस्म हो जाने का वरदान मांगा।
गर्ग मुनि से यदुवंशियों से अविजित रहने का वरदान प्राप्त कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण कर दिया था। भगवान ने गर्ग के वचनों के अनुरुप  उसको मारा नहीं। युद्ध का मैदान छोड़कर भगवान भाग गए। इसीलिए कृष्ण का नाम रण भूमि से भागने के कारण 'रणछोड़' प्रसिद्ध हुआ।
कालयवन उनके पीछे पीछे दौड़ा। सोते हुए मुचकुन्द के निकट जाकर भगवान ने अपना पीताम्बर उनको ओढ‍़ा दिया।  कालयवन ने आकर देखा कि पीताम्बर ओढ़ कोई छुपा है। कृष्ण समझकर ज्योंही उसने मुचकुन्द महाराज को उठाया। मुचकुन्द की दृष्टि पड़ते ही वो वंही भस्म हो गया। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस गुफा में राजर्षि मुचकुन्द भगवान नारायण की आराधना हेतु तपोरत हैं। श्रीकृष्णजन्माष्टमी को यंहा भगवद्भक्तों का बड़ी संख्या में आगमन होता है तथा उनके द्वारा नारायण भगवान की विशेष पूजा, दान एवं हवन किया जाता है।

॥" कलापग्राम "॥

इस क्षेत्र (मुचकुन्द गुफा के निकटवर्ती) का नाम पुराणों में 'कलापग्राम' उल्लिखित है। अर्थात् प्रलयकाल में भी जो नष्ट न हो ऐसा क्षेत्र। चिरजीवी (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, परशुराम, विभीषण, कृपाचार्य, मार्कण्डेय  व प्रह्लाद) तथा अनेकों ऋषि महर्षि सूक्ष्मशरीर से यंहा तपस्या करते रहते हैं। प्रलयकाल होने पर सम्पूर्ण सृष्टि के सत्व (बीजरुप) को वे यंहा सुरक्षित रखेंगें। जल कम होने पर पुनः यहां से सृष्टि का प्रारम्भ होगा। स्थानीय लोग इसको कल्पग्राम या कल्पङ्ग भी कहते है। कलाप का अर्थ संस्कृतकोशों में ग्राम विशेष और ग्रामभेद प्राप्त होता है। भागवत में वर्णन आता है कि 
"देवापिः शन्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः।
कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ॥
ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ।
वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत् प्रथयिष्यत:॥"
(श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कन्ध 12, अध्याय 2, श्लोक 37-38)
चन्द्रवंश एवं सूर्यवंश की परम्परा को बनाए रखने हेतु चन्द्रवंशीय शान्तनु के भाई 'देवापि' ( भीष्म के चाचा) व सूर्यवंशीय इक्ष्वाकु कुल के 'मरु' यंहा सतयुग आने तक योगबल से स्थित रहकर तपस्या कर रहे हैं। कलियुग के अन्त में भगवान कल्कि की आज्ञा से ये पुनः अपनी-अपनी वंशपरम्परा की स्थापना करते हुए वर्णाश्रम धर्म का विस्तार करेंगे।

॥ " सरस्वती उद्गम स्थल देवताल "॥

सरस्वती की कथा एवं माहात्म्य इस श्रृङ्खला के पिछले भागों में है। भगवती सरस्वती की स्थापना भगवान नारायण के द्वारा की गई थी। ऐसा स्कन्द पुराण में वर्णन है। कलापग्राम से आगे जाने पर पर्वतों के शिखरों के मध्य एक सुरम्य से स्थान पर एक बहुत विशाल तालाब है। जिसे 'देवताल' के नाम से जाना जाता है। कैलाश के निकटवर्ती इस दुर्गम व बहुत ऊंचाई वाले क्षेत्र में इतना बड़ा तालाब आश्चर्य का विषय है।
यहीं से सरस्वती नदी का उद्गम माना जाता है। सरस्वती कई धाराओं से मिलकर बनी है। इस क्षेत्र में कई ताल हैं जिनसे निकली धाराओं से मिलकर सरस्वती नदी का स्वरुप बनता है। इन तालों में देव ताल आसमानी नीले रंग, राक्षस ताल का काला, सरस्वती ताल, वशिष्ठ ताल गहरे स्याही रंग का नीला, नाग के आकार का नागताल व अरवा ताल (अरवाताल अभी दिखाई नहीं देता प्राकृतिक आपदा से ये टूट गया लगता है। इसके अवशेष शेष हैं) आदि प्रमुख हैं। माणा के लोग वर्ष में एकबार जाकर देवताल आदि में स्नान, जप व पूजन करते हैं। इससे आगे जाने पर बांए ओर गोमुख व सीधे आगे कैलाश मानसरोवर का क्षेत्र आता है। जिसे मानस खण्ड भी कहा जाता है।

॥" यमपाला या जम्पाला "॥

भीमपुल से लगभग आधा किमी आगे एक पवित्र तीर्थ है। जिसको यम पाला कहा जाता है। इस स्थल पर माणा गांव के लोग अपने मृत परिजनों के निमित्त दान व श्राद्धादि करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर जिस मृत व्यक्ति के निमित्त उसके सम्बन्धी श्रद्धापूर्वक दान व श्राद्धादि करते हैं। उसको यम पुरी के दर्शन नहीं होते हैं। अर्थात् वह यम लोक के कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर देता है। स्थानीय लोग इसको जम्पाला (य का उच्चारण ज) कहते हैं। 

॥" वसुधारा "॥

मणिभद्रपुरी(माणा) से पांच(5) किमी. अलकनन्दा के बांए तट की ओर वसुधारा नामक एक मनोहर झरना है।
"मानसोद्भेदनात् प्रयग्दिशि सर्वमनोहरम्।
वसुधारेति विख्यातं तीर्थं त्रैलोक्यदुर्लभम्॥"
(स्कन्दपुराण)
मानसोद्भेद तीर्थ से पश्चिम की ओर परम मनोहारी तीनों लोकों में दुर्लभ वसुधारा नामक विख्यात तीर्थ है। 
वसुधारा तीर्थ को स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्डान्तर्गत बदरीक्षेत्र माहात्म्य प्रकरण में बदरिकाश्रम के प्रमुख तीर्थों में स्थान दिया गया है। भगवान नर व नारायण के पिता धर्म की इस तपोस्थली को धर्मक्षेत्र भी कहा जाता है। आठ वसुओं ने यंहा नारद जी के कहने पर तप किया था। स्कन्दपुराण, विष्णुपुराण तथा हरिवंश पुराण में अष्ट वसुओं के नाम आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास प्राप्त होते हैं। महाभारत में आप (अप्) के स्थान पर 'अह:' नाम प्राप्त होता है। शेष उपरोक्तानुसार ही हैं। धर पृथ्वी के, अनल अग्नि के, अनिल वायु के, आप जल के, प्रभास द्यौः या आकाश के , सोम चंद्र के, ध्रुव नक्षत्रों के, तथा प्रत्यूष आदित्य या सूर्य के संज्ञक देवता हैं।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के छठे स्कन्ध में दक्ष की सन्तानों के वंश विस्तार के प्रकरण में वर्णन आता है कि, दक्ष प्रजापति की कन्या 'वसु' का विवाह धर्म के साथ हुआ  था। इसी धर्म की पत्नी वसु के गर्भ से वसुओं का जन्म हुआ था। द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु ये अष्ट वसु हैं।
द्रोणः प्राणो ध्रुवोऽर्कोऽग्निर्दोषो वसुर्विभावसुः।
द्रोणस्याभिमतेः पत्न्या हर्षशोकभयादयः॥
(श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कन्ध 6, अध्याय 6, श्लोक 11)
श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण में वसुओं की कथा आती है। एक बार वसुओं ने वसिष्ठ मुनि की नन्दिनी नामक गाय चुरा ली थी। जिससे क्रोधित होकर मुनि वसिष्ठ जी ने वसुओं को शाप दे दिया। तुम लोग देवत्व से हीन होकर  मनुष्य योनि में जन्म लोगे । शाप के कारण वसुओं का जन्म शान्तनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। सात पुत्रों को तो गंगा ने  जन्म लेते ही गंगा में प्रवाहित कर दिया था। आठवाँ पुत्र किसी तरह बच गया। इसका नाम देवव्रत हुआ। अपनी कठोर व भीषण प्रतिज्ञा के कारण ये भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसीलिए भीष्म वसु के अवतार कहे जाते हैं ।
ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं। तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या क्रमश: 333 और 12 है। इस धारा के जल में वसुओं का वास माना जाता है। पापी व पुण्यात्मा की पहचान इसके जल के द्वारा होती है। ऐसी इसकी मान्यता है।
"येऽशुद्धपितृजाः पापाः पाखण्डादयः वृत्तयः।
न तेषां शिरसि प्रायः पतन्त्यापा कदाचन॥"
जिनका वंश शुद्ध न हो, जो पापी या पाखण्डी वृत्ति वाला हो। ऐसे लोगों के ऊपर वसुधारा का पवित्रजल नहीं गिरता। चाहे वह धारा के नीचे ही क्यों न खड़ा हो जाए।

॥" अलकापुरी "॥

अलकापुरी का प्रयोग शब्दकोशों में कुबेर की नगरी के लिये प्राप्त होता है। कैलाश के निकट स्थित अलकापुरी के सन्दर्भ में अमरकोशकार ने लिखा है।
"अस्योद्यानं चैत्ररथं पुत्रस्तु नलकूबरः। कैलाशः स्थानमलकापूर्विमानं तु पुष्पकम्"॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण में कैलाश के सन्निकट स्थित अलकापुरी से अलकनन्दा के उद्गम का वर्णन प्राप्त होता है। 
"ददृशुस्तत्र ते रम्यालकां नाम वै पुरीम्।
वनं सौगन्धिकं चापि यत्र तन्नाम पङ्कजम्॥"
(श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कन्ध 4, अध्याय 6, श्लोक 23)
अर्थात् वहाँ (कैलाश में) उन्होंने ( ब्रह्मादि देवताओं ने) अलका नाम की एक सुरम्यपुरी और अनेक प्रकार की सुगन्धों से युक्त एक वन देखा। जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले उसी वन के नाम वाले सौगन्धिक नामक कमल खिले हुये थे।
अलकापुरी को देवताओं के धनाध्यक्ष अर्थात् धन के स्वामी कुबेर की नगरी कहा जाता है। वसुधारा से थोड़ा आगे जाकर अलकापुरी क्षेत्र आता है। यहीं से भगवती अलकनन्दा का उद्गम होता है। अलकापुरी से निकलने के कारण इनका नाम अलकनन्दा ऐसा प्रसिद्ध हुआ। अलकनन्दा नदी मूलतः तीन धाराओं से मिलके बनती है। एक सतोपन्थ की ओर से दूसरी भागिरथी खर्क से व तीसरी धारा वसुधारा के समानान्तर जोगीसैण की ओर से आती है। इन तीनों धाराओं का सङ्गम अलकापुरी के पास होता है। नारायण पर्वत के अन्त अर्थात् जंहा नारायण के चरण हों से होकर बहने का भी शास्त्रों में वर्णन आता है। वैसे भी अलकापुरी का क्षेत्र काफी बड़ा रहा होगा। एक ग्लेशियर या वर्फ के खण्ड तक इस नगरी की परिधि मान लेना उचित नहीं होगा। यंहा से दो घाटियां प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं। वसुधारा से जाते हुए दांए ओर वाली घाटी में आगे 'भागिरथी खर्क' नामक स्थान है। इसके दूसरी ओर पर्वत के पीछे 'गोमुख' ग्लेशियर है। जंहा से भागिरथी का उद्गम होता है। भागिरथी खर्क में दोनों नदियों (अलकनन्दा व भागिरथी) के स्रोतों का संगम स्थल है। यंहा से (अलकापुरी) से बांए ओर की घाटी का मार्ग सत्पथ और स्वर्गारोहणी की ओर जाता है। यंहा शिवलिङ्गाकार पर्वत शिखर है। जिसके तीनों ओर से अलकनन्दा की धाराएं प्रवाहित होते हुए ऐसा आभास कराती हैं मानो भगवान शिव  का अभिषेक कर जगत कल्याण के निमित्त भगवान नारायण के चरण कमलों का प्रक्षालन करते हुए भगवती अलकनन्दा प्रकट हुई हों।
तीर्थदर्शन के अगले भाग में पञ्चधारा, सहस्रधारा, चौखम्भा, चक्रतीर्थ, चन्द्रकुण्ड, सूर्यकुण्ड, सत्पथ( सतोपन्थ) व स्वर्गारोहिणी आदि का वर्णन करने का प्रयत्न होगा।
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